बुधवार, 16 मार्च 2022

चाहतें ज़िद हैं मंज़िलों की.......

 


जिसने चाहा हो ज़िंदगी कू

ज़िंदगी उसके लिए नफी है

चाहतें ज़िद हैं मंज़िलों की

ज़िंदगी इनमे कहीं नही है

कभी खुद को आज़मा के देखो

वाँ खुद की हार ही छुपी है

बुलंदियों पेर, जिसकी नज़र टिकी है

पासटीओं मे भी उसका गुज़र नही है

माना हेर कोई हम पे हुक्मरन है

जिस्म झुक गया है पेर आँख तो उठी है

हक़ गो गुज़र जा,दिल मे किसी के चाहे

अपने ही हक़ पेर उसकी नज़र नही है

दुनिया रिश्ते, सब खेल हैं तमाशा

पेर तुझ सा मदारी और कोइ नही है

ये सीने से कैसी, आवाज़ें उठी हैं

सदिओं की घुटन से, आज़ादी तो नही है

दिल के मखमसों से आरी हुआ दिल

दीवानगी की मेरी ,ये क़ीमत तो नही है

अब ना है हयात बख़्श, आब-ए-हयात कोई

कहीं इसमे भी कोई, मिलावट तो नही हुई है

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