गुरुवार, 17 नवंबर 2011

एक साथ अहद का है...........




तेरे मेरे दरम्यान
एक रिश्ता है इरफ़ान का
ये नज़र ना हो जाए
फिर किसी तूफान का
तक़दीर तन्हा नही मिलती
क़िस्तें हैं शेरतों की
एक साथ अहद का है
दूजा अहद शैतान का
कोई लाख जतन करले
इसे रोक नही पाया
ये खेल हैं क़ुद्रट के
काम नही इंसान का
आए गोशा-ए-जिगर तुझ को
पलकों मे छुपा रखते
कभी रुखसत नही करते
घर जाना ही बहतेर है
आए हुए मेहमान का
नही तुझ सा कोई जौहर
कोइ लाल नही तुझ सा
तू अनमोल ख़ज़ीना है
हिस्सा है मेरी जान का


हेर दर्द गवारा है लायकिन.......




हेर दर्द गवारा है लायकिन
कोइ और फसाना तुम ढुणडो
हेर ज़ख़्म सितारा है लायकिन
कोइ और बहाना तुम ढुणडो
अब यहाँ जीना मुश्किल है
कोइ और ज़माना तुम ढुणडो
छूँड साँसें हैं बस अपनी
कोई और ठिकाना तुम ढुणडो
अफ खेल ये ज़ालिम ले डूबेगा
कोइ और दीवाना तुम ढुणडो
कोइ घड़ी खाली नही तुम से
कोइ और वीराना तुम ढुणडो

अजब खुसबु है मोहब्बत ये....


लोग कहते हैं
सराब है ये धोका है
मगर मई ये कहती हूँ
ये खुद को पाने का मौक़ा है
शब-ए-घूम का ये शबनमी आँसू
ये वीरान दिलों की है खुश्बू
ये है तन्हा सुलगता अंगारा
ये सियाह रातों का लश्कारा
खामोशी मे जैसे कोई सरगोशी
रूह मे उतेर जाए एक सुई सी
ये दिल वालों का मज़हब है
ये दीवानों का मानसब है
क्या कहीं कोइ दिल सवाली है
क्या कहीं कोइ दामन खाली है
जिस दिल मे ये समा जाए
वो दिल हेर दिल को महकाय
मोहब्बत क्या क्या ना समझाए
महबूब के संग मेराज तक पाए

ना आवाज़ दे वो ख़याल को



ना आवाज़ दे वो ख़याल को
हक़ीक़तों का जिसे शऊर हो

उसे घरज़ क्या जहाँ की भीड़ से
जो आसमानों मे माशूर हो
तू पुकारता है जिसे है यहीं
वो कोई भरम नही के डोर हो
मोहब्बत है एक खामोश अदा
ज़रूरी नही के वाँ शोर हो
तू जानता है,नही पहेचआंता
आईना बन,के उसे घुरूर हो

सोमवार, 14 मार्च 2011

गुज़रे दिनों की धूप ने.....



गुज़रे दिनों की धूप ने
ये नये शजार उगाए हैं
फिर ज़िंदगी के इस सफ़र मे
ये नये मोक़ां आए हैं
वक़्त मोसां ना मिटा सके
ऐसे निशान हम लाए हैं
दाघ जिस के तमघा-ए-हयात
वो चाँद हुँने सजाए हैं
जहाँ तलब मोहबत है फ़ाक़ात
हम उन्ही के मा-जाए हैं
एक दिल की जूसतजू का है फल
काई दिल पास पास आए हैं

ये मेरी चाहतों को.............



ये मेरी चाहतों को
आज क्या हुआ है
कुछ सोचना भी चाहूं
ज़हन क्यों सूना पड़ा है
वो ख़याल क्या हुआ
जहाँ तू आ बसा था
वो दिल कहाँ गया
जो तुझ से जेया मिला था
दर्द की हेर गली
आज वीरान पड़ी है
ज़िंदगी फिर से कोइ
सवाल लिए खड़ी है
कौन हूँ मई आख़िर
क्या चाहती हूँ ज़िंदगी से
ये कस्माकश कह रही है
ये पहचाहन की एक कड़ी है
कूब ख़तम खेल होगा
कूब कोई सिरा मिलेगा
मई उसको थाम लूँगी
फिर तुझ से आ मिलूंगी
शाएेद वही है मेरी मंज़िल
क़दम तेरे थाम लूँगी
चुपके से तेरा नाम लूँगी

रविवार, 13 मार्च 2011

एक दिन और डूबा है.....



एक दिन और डूबा है
एक सूरज फिर निकलेगा
कहीं शाम कोई ढाल जाएगी
कहीं रात कोई साज जाएगी
तकती आँखों की उम्मीदों का
कोइ दिया रोशन कर आएगा
देख कातिब बार वक़्त कोई
करम किसी पेर कर जाएगा
एक मासूम की आहों से
ये आलम दहल ना जाए
कहीं कोई सिसकी चुपके से
तेरे दर्र से ना आ टकराए
काँप उठेगा ज़ररा ज़ररा ये
जुब तक़दूस पे कोइ आँच आए
उस वक़्त से दर आए ज़ालिम वक़्त
जुब खुदा की तुझ से तन जाए
बहतेर है रोक ले खुद को तूऊ
शाएेद बात किसी की बन जाए
छोड़ दे अपनी ये ख़याली सरदारी
कोइ तक़दीर से ना लड़ पाए
जिस का जितना मोक़दार है
उतना ही उसके हाथ आए

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

फ़ैसला


अब ना कोई आ-ओ-बका है
मंज़ूर तक़दीर का फ़ैसला है
बारहा क़िस्मत आज़मा के देखी
हारा,नफ़स के आगे जो झुका है
अक़ल जुब हवा-ए-नफ़स तर्क कर्दे
साँझ लो वहीं असल की िबतिडा है
चाहतें एहसास की ही हैं निशानी
तखलिख़ आदम का एक यही सिलसिला है
मोहब्बत राबूबिएट का आईना है
इसके बाघैर महबूब कोई ना हुआ है