गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

क्या हूँ मई उसकी निगाह मे.............




मई रहती हूँ हेर वक़्त जिसकी पनाह मे
सोचती हूँ क्या हूँ मई उसकी निगाह मे
गर सवाल उठेगा मेरी उलफत की वफ़ा पेर
क्या  करता  गर होता वो मेरी जगह  मे
फैलाए हैं उसी ने ये ज़ीस्ट के झगड़े
वरना क्या होता कोई और क़िस्सा-ए-जफ़ा मे
भेजा है मोहबत फरिश्तों को सिखाएं
बेशक ये भी है  इबादत  तेरी निगाह  मे
एक क़तरा-ए-नीसान को बनाए जो गौहर
पोषीदा  है  वो जौहर  रब की  रज़ा  मे
है मर्घुब तेरे करम को आ आज़ल  से
बनता है डॉवा दर्द की बंदे को दुआ मे

शनिवार, 2 फ़रवरी 2013

वो रक़स जुनून जो कर ना सका






ये ख्वाब नही है मानो तो
ये पऔन वही हैं देखो तो
वो रक़स जुनून जो कर ना सका
एक क़दम थी इश्क़ की मँज़ी भी
पेर क्या कीजिए इस पागलपन का
जो पल मे किसी का हो ना सका
सौ बार धड़कते दिल ने कहा
हो ना हो यही है ख्वाब तेरा
जसरत फिर भी खामोश रही
आख़िर इस दिल ने क्या क्या ना सहा
पेर इतने बरसों मे ज़ालिम का
हेर  लम्हा  एक  पघाम रहा
खुद बाज़ रहा मुलाक़ातों से
उस दर्द ने मेरा हेर दर्द छुआ
वो जानता था,ये एक बचपन है
जो प्यारा था उस से प्यार हुआ
इल्ज़ाम सभी उस ने सर अपने लिए
कहीं अपना बाक़ी कुछ ना रखा
दिल उसी को  माँगे, मुराद नही

आँसू







आँसू पहले भी बहते थे
पेर वो दर्द तेरा सहते थे
अब जुब ये आँसू बहते हैं
अपनी वीरानी को कहते हैं
उस वक़्त मज़ा था रोने मे
अब खुद पेर रोया करते हैं

सजाए कितने ख्वाब................





सजाए कितने ख्वाब इस ख़याल से
ताबिर निकल आए शाएेद नक़ाब से
तिलिस्मात की जैसे कोई उनसुनी दास्तान 
निकल आए शब भर मे किताब से
नौ-उम्र आरज़ू की इतनी सी थी हयात
भीगी रूटों के जैसे दो पल हूबब से
ज़िंदगी चीन कर कहा यही है ज़िंदगी
तेरी क़िस्मत लिखी गई आँखों के आब से
नोक पालक संवारते संवारते खीर्ड की
राज़ हक़ीक़त के पा लिए तेरे एजतिनाब से
रोज़ उसकी खामोशी से अजब गुफ्तगू रही
परेशन सवाल है उसके अधूरे जवाब से

मैने फिर आज तुम्हें देखा









मैने फिर आज तुम्हें देखा
मैने आज फिर से तुम्हें चाहा
जैसे कोई ख़याल रूबरू होजाए
जैसे कोई अक्स हूबहू नज़र आए
ऐसे तुमसा कोई जुब सामने आजाए
काश फिर से कोई ख्वाब होजाए
मई उस लम्हे कू गिरफ़्त मे ले लूँ
तुम्हें एक बार नज़र से छू लूँ
किसी पल मुझे भी होश आजाए
जुब सामने तुमसा कोई आजाए
वो घड़ी यक़ीन की सूरत ले ले
पहचान के साए उसको टटोले
दूं भर कू उजाला होजाए
जुब सामने तुमसा कोई आजाए
एक यही रिश्ता निभा है हम से
ये दिल कूब छुपा है तुम से
ये एक दूं से तुम्हारा आना
एक नज़र-ए-करम का मिल जाना
सौ दर्र शिफा के खोले
एक नज़र तुम्हारी जुब बोले
मेरे दर्द डोर हुए अब सारे
एक तुम्हारी अन्स के आगे सब हारे
मई ने हार के सब जुग पाया
तुम्हें पाना ही मुझे रास आया
मई मँनूं हूँ उलफत तेरी
तूने लाज उलफत की रखी है मेरी
जुब भी कोई घूम ने मुझे सताया
तू एक नये रूप मे सामने आया
तू ले जाता है मुझ से मुझ को
हेर दूं मई पास रखूँगी तुझ को

जुब भी मई ने खुदा कू याद किया






जुब भी मई ने खुदा कू याद किया
जाने दिल ने क्यों तुझ को याद किया
जुब क़ुरान रहा मेरे हाथों मे
तेरी खुश्बू ने मुझ को शाद किया
कोई तलब उठी जुब हक़ की सीने मे
तेरे ज़ाहिर ने बातिं को आबाद किया
तेरे क़ुर्ब के तालिब कितने नादान थे
हेर पल खुद से एक नया जहाड़ किया
एक बुनन्द इश्क़ की तुझ से जिन को मिली
किसी को शिरीन,  किसी को फरहाद किया
तू ने कशाफ़  को यों महजूब रखा
कभी खुद को बुलबुल कभी सयाद किया

वो मोसां जो कभी...................






वो मोसां जो कभी मुझ पे खिला करता था
अब मेरे दोस्त वो कहीं और मिला करता है
निकला करती थी जुगनुओं की बारात जहाँ
अब डोर डोर तक कोई ना चला करता है
जहाँ धूप चौं आँख मिचोली  करते थे
अब वहाँ कोई खामोश गीला करता है
हेर पल बात हुस्न की हुआ करती थी जहाँ
अब तक़ाज़ा वक़्त का हेर वक़्त  मिला करता है
शिकायट रहती थी जिसे  शब-ए-मोखत्ासर से
अब पेरवाना अपनी आग ही मे जला करता है
जो ख्वाब देखे थे शजार के सायों ने
अब दर्द उस का याद कों भला करता है
पूछो इन बिखरे हुए पुज़हमूर्दा पत्तों से
अब कोई उम्मीद का मोसां जिगर छिला करता है
जुब से मोसमों ने समझाीई हक़ीक़त अपनी
अब ना कोई हसरत ना कोई घूम पाला करता है