बुधवार, 23 मार्च 2022

कहीं कोई नायाब लफ्ज़ किसी का.................

 


कहीं है रात का अंधेरा

कहीं है फैला हुआ उजाला

कोई कहीं दिन माना रहा है

कोई कहीं शब को भुला रहा है

दोनो की हसरत यही है

कोई पघाम हम को देदे

कोई पघाम हम से लेले

कहीं किसी का वक़्त तहेर जाए

कहीं किसी का वक़्त गुज़र जाए

ज़हेन-ओ-दिल की कॉफटों से

अपने दिल-ओ-दिमाघ धो ले

कहीं कोई नायाब लफ्ज़ किसी का

किसी की मायूस रूह को छू ले

एक नेरम ताज़ा हवा का झोंका

किसी खुली खिड़की को टटोले

कहीं कोई झरोका कोई झूरी मिल जाए

मई उसकी तमज़ातों को समेटुन

सारी वीरनियाँ उड़ा लूँ

वही दोस्त मेरा सदियों पुराना

इन्ही खुलाओं मे फिर से पा लूँ

कोई कूब से खुद मे खोजता है

अपनी दीवानगी मे ढूनडता है

आए काश हम, हम ना होते

और ये वक़्त के सितम ना होते

आज भी वो न्हंनी सी गिलहेरी

अब भी पहाड़ खोजती है

अपना अगला कॉन्सा है ठिकाना

अपनी क़िस्मत से पूछती है

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