कभी दो घड़ी मुक़ाबल हुए तुम
तो पूछूँ मई तुम से
इस नमकीन पानी का आख़िर
तुमको कैसा नशा है
बैर है खाली आँखों से तुमको
रोज़ एक नया घूम थमा देते हो इनको
दरया बुर्द करके हैरान क्यों हो
फिर किनारे किनारे बैठे मुस्कुरा कर
पूछते हो खामोश क्यों हो
वो सघर जो ख्वाबों मे आकर
एक सेहरा की अनमीत प्यास को जगा कर
आँखों को नज़ारे का मूशदा सुना कर
ओझल है कूब से नज़दीक आ कर
मगर एहसास का हेर झरोका
मानुस झोंकों का आदि है कूब से
महेकता है एक पल सिसकता है एक पल
एक ख़याल अक्सर ख़यालों मे आ कर
कहता है मुझ से यहीं पेर मिला कर
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