बुधवार, 20 मई 2009

तेज़-रफ़्तार ज़माने की


तेज़-रफ़्तार ज़माने की
उफ़ताद तबिएट ने
कितने फिटने जगा दिए हैं
पास हो कर कोई
पास नही है
फसिले कितने बढ़ा दिए हैं
पाने की तमन्ना,
खोने के ख़ौफ़ ने
ख्वाब कितने गँवा दिए हैं
यहाँ तेरी नहीं ज़रूरत,
मेरी नहीं ज़रूरत
इंसान कितने बना दिए हैं
परवाज़ के लिए
वससातों की कहा में
आसमान कितने गँवा दिए हैं
अर्श-- फर्श की
जिद्ड़ातें नई नइई हैं
चाँद कितने सज़ा दिए हैं

3 टिप्‍पणियां:

  1. आधुनिक दुनिया की यही तल्ख़ हकीकत है . लोग कहते हैं कि दुनिया सिमट रही है और एक गाँव बनती जा रही है मगर सही कहूं तो तन्हाई बढती जा रही है इंसान के दिलों के बीच फासला बढ़ता जा रहा है. इन भावों को खूबसूरत देने के लिए शुक्रिया !

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  2. talkh haqeeqataon ke darmyaan kewal ek haqeeqat haseen hai..kuch dil abhi tak namabar hain.adhunikta se puraan badal nahi jaate..

    chaand

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  3. beshaq badalne bhi nahi chahiye ye dunia aakhir santulan se hi chal rahi hai aur chalegi

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