बुधवार, 13 मई 2009

ख्वाब

मैने भी एक ख्वाब देखा है

ये जंगल से जो लगते हैं

कभी चमन ये होज़ाएँ

इन वीर्ाणों से घबराना क्या

ये तो पुराने साथी हैं

इनका दामन भी महएकाएँ

मैने देखा खाली आँखों मे

ख्वाब कोइ और भरता है

तबीर इनकी जैसी भी हो

इल्ज़ाम उन्ही पेर धर्ता है

सुखी प्यासी धरती पेर

जैसे भूका ज़ुल्म करता है

मेरी इन सोचों मे अक्सर

एक सवाल गूंजा करता है

ख्वाब ही देखे तूने अब तक

इनका मतलब समझा भी

इनकी हक़ीक़त जानी भी

ये ख्वाब तुझसे कहते थे

देख कहीं कोई खाली आँख

इन ख्वाबों से ही बहल जाए

कोई उदासी इनसे ढाल जाए

इन तारिक़ बोझल राहों मे

तुझे अपनी ताबिर मिल जाए

वो रहगुज़ार याद बड़ा आती है

जहाँ आवाज़ें कोई देता था

ये वक़्त नही फिर आने वाला

सुन लो मुझ को कहता था

ये आग सी जो हेर्सू फैली है

ये व्हेशत सी जो छाई है

ये इंसानों के सीनों मे

तहरीक-ए-जहल बन कर आई है

क्या इन सर्ड होते जज़बों मे

कोई ख्वाब जगाया जास्कता है

क्या वो सुनेहरा रुपेहला कल

फिर वापेस आसाकता है

अब तो इन ख्वाबों पेर भी

“चाँद”तारी एक सुक्कता है

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