बुधवार, 20 मई 2009

एक रोज़ का तमाशा


एक रोज़ का तमाशा
जीवन की हर खुशी है
हर साँस आती जाती
क्यों बोझ सी बनी है
क्या यही ज़िंदगी है
जज़्बात वो कहाँ हैं
बहकी तीन आरज़ुएँ
हालात वो कहाँ हैं
तू भी मुझ से नलान
मुझ मे ना ढाल सका
क्यों हुस्न--इश्क़ ज़िंदगी का
मुझ को ना मिल सका
जज़्बा जहद का
कहाँ जेया के सो गया
जुनून फ़ैसलों का
क्यों एक लख्त खो गया
इस दीवानगी को यारो
तुम कोई नाम दे दो
टिशणा काविशों को
"चाँद"का प्याम दे दो

7 टिप्‍पणियां:

  1. सार्थक हो जज्बात तो सुधरेंगे हालात।
    गम से लड़ खुशियाँ मिले तब बनती है बात।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  2. सुस्वागतम्.....

    एक बार अपने परिचय वाले प्रश्नों को भी पोस्ट में डाल दीजिए..
    शायद कुछ जबाव मिलें....

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  3. wahh....umda ..kavita badi hi sundar or bhawo wali hai..asaa hi likhte rahiye..aage posting ka intjaar hai

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  4. आप की रचना प्रशंसा के योग्य है . लिखते रहिये
    चिटठा जगत मैं आप का स्वागत है

    गार्गी

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  5. हुज़ूर आपका भी .......एहतिराम करता चलूं .....
    इधर से गुज़रा था- सोचा- सलाम करता चलूं ऽऽऽऽऽऽऽऽ

    कृपया एक अत्यंत-आवश्यक समसामयिक व्यंग्य को पूरा करने में मेरी मदद करें। मेरा पता है:-
    www.samwaadghar.blogspot.com
    शुभकामनाओं सहित
    संजय ग्रोवर

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  6. धन्यवाद दोस्तो..आप सब की प्रशंसा ने हैरान किया…और खुश भी…कोशिश रहेगी के वो लिखूं जो खुदा को पसंद हो…रब से कहाँ जुड़ा है उसका बंदा…

    चाँद

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