मई रहती हूँ हेर वक़्त जिसकी पनाह मे
सोचती हूँ क्या हूँ मई उसकी निगाह मे
गर सवाल उठेगा मेरी उलफत की वफ़ा पेर
क्या करता गर होता वो मेरी जगह मे
फैलाए हैं उसी ने ये ज़ीस्ट के झगड़े
वरना क्या होता कोई और क़िस्सा-ए-जफ़ा मे
भेजा है मोहबत फरिश्तों को सिखाएं
बेशक ये भी है इबादत तेरी निगाह मे
एक क़तरा-ए-नीसान को बनाए जो गौहर
पोषीदा है वो जौहर रब की रज़ा मे
है मर्घुब तेरे करम को आ आज़ल से
बनता है डॉवा दर्द की बंदे को दुआ मे
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