शनिवार, 2 फ़रवरी 2013

वो मोसां जो कभी...................






वो मोसां जो कभी मुझ पे खिला करता था
अब मेरे दोस्त वो कहीं और मिला करता है
निकला करती थी जुगनुओं की बारात जहाँ
अब डोर डोर तक कोई ना चला करता है
जहाँ धूप चौं आँख मिचोली  करते थे
अब वहाँ कोई खामोश गीला करता है
हेर पल बात हुस्न की हुआ करती थी जहाँ
अब तक़ाज़ा वक़्त का हेर वक़्त  मिला करता है
शिकायट रहती थी जिसे  शब-ए-मोखत्ासर से
अब पेरवाना अपनी आग ही मे जला करता है
जो ख्वाब देखे थे शजार के सायों ने
अब दर्द उस का याद कों भला करता है
पूछो इन बिखरे हुए पुज़हमूर्दा पत्तों से
अब कोई उम्मीद का मोसां जिगर छिला करता है
जुब से मोसमों ने समझाीई हक़ीक़त अपनी
अब ना कोई हसरत ना कोई घूम पाला करता है

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