गुरुवार, 15 जुलाई 2010

फिर एक शब तेरी याद बन कर


फिर एक शब तेरी याद बन कर

सारे लम्हे खारों से चुन कर

एक एक गुल से खुश्बू चुरा कर

कितने खूनीं रंगों मे नहा कर

सारी सरफ़िरी खाहिशों को सुला कर

चुपके से कहती है कानो मे आ कर

मोहब्बत उसे रास आए वफ़ा कर

देख चलता है वो दामन बचा कर

रिया-कार मिलते हैं पेरडा गिरा कर

कितना कहा था ना खुद से मिला कर

ख़ाता-कार के लिए ना तू खाता कर

आ!रोशन हुआ दिल सब कुछ जला कर

आईने,अब ना यों मुझ पेर हंसा कर

रब मिला है उसे दिल मे बसा कर

15 टिप्‍पणियां:

  1. बढ़िया है..

    वैसे:रिया-कार मिलते हैं पेरडा गिरा कर ...का क्या अर्थ होता है, कृपया बतायें तो कुछ नया सीखने मिले.

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  2. ये तश्तरी कही मुशतरी से तो नही उड़ी है?अजी क्या बताएँ...अर्थ तो भावनाओं का है..जिस पेर जो गुज़री उसने वो लिखा..पेरडा गिरा कर तो मसीहा भी मिलते हैं सिटमगर भी..रियकार भरुपीए का दूसरा नाम है..यहाँ उलझनों का शिकार एक दिल कह रहा है..बस और कुछ नही..हक़ीक़त केवल भगवान ही जानता है..हम मंसूहू तो कल्पना भी ढंग से नही कर सकते..अर्थ विस्तार से बता दिया है..

    चाँद

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  3. अछि ग़ज़ल है, मेरे ख्याल से थोडा लफ़्ज़ों को दुरुस्त करने की ज़रूरत है.

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  4. @ Udan Tashtari

    "रिया-कार मिलते हैं पेरडा गिरा कर"

    मेरे ख्याल से यह कुछ ऐसे है - "रिया-कार मिलते हैं पर्दा गिरा कर"

    और रिया-कार दिखावा करने वाले को कहते हैं, जो अपना हर कार्य स्वयं के ह्रदय को संतुष्ट करने के लिए नहीं बल्कि केवल दूसरों को दिखने के लिए करते हैं.

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  5. मेरे ख़याल से

    ख़ाता-कार = खता-कार
    खाता = खता
    यों = यूँ
    पेर = पर

    होना चाहिए.

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  6. शाह नवाज़ जी से सहमत हूँ ...

    रचना बहुत सुन्दर है ... काबिले तारीफ़ !

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  7. जबरदस्त
    शानदार
    जानदार
    और धारदार

    अरे.. हां.. बधाई

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  8. शानवाज़ जी..शुक्रिया..के आपने विस्तार से समझा दिया..जी सही है...

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  9. दोस्तो.बेहद खुशी हुई के आप सबने मुझे पढ़ा,सराहा,शुक्रिया..

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