ये भी एक दौर है
ये भी गुज़र जाएगा
ये मस्त खरमाण वक़्त
अपनी चाल बदल जाएगा
इस जिस्म का हेर अंसार
क़तरा क़तरा पिघल जाएगा
बे-ख्वाब इन रातों से
हेर ख्वाब निकल जाएगा
ज़िंदगी एक मुसाफिर का क़ूबा
मुसाफिर चोला बदल जाएगा
रंग बदलते चेहरों का
एक और रंग ढाल जाएगा
ज़ख़्म पुराने कहते हैं
नया हेर दर्द बहाल जाएगा
अभी मई एक हक़ीक़त हूँ
मुझ पेर भी ये कल आएगा
...बहुत सुन्दर, प्रसंशनीय रचना!!!
जवाब देंहटाएंDhanyawad sanjay ji..
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