बुधवार, 2 दिसंबर 2009

आए घूम-ए-बे-करां


आए घूम-ए-बे-करां

तू कहाँ नही,कहाँ नही
ना हो परेशान मेरी गाज़ल
नज़्म ना बिगड़ जाए कहीं
ज़ब्त-ओ-जज़्ब का ही रिवाज हो
फिर कहीं जज़बों की मेराज हो
एक मौक़ा होजाए गर आटा
फिर ख़याल पालेटा है खुदा
आए उदास रत्त तेरी क़सम
मैने भुला दिए रंज-ओ-घूम
इन्ही मे खुशी के राज़ हैं
सोज़-ओ-साज़ एक ही अंदाज़ हैं
कभी गुज़रो किसी दर्द की शाम से
देखना होज़ाएँगे दर्द अपने आम से
सदिओं से ज़िंदगी का यही है चलन
ये कभी खार है कभी चमन
मई कहीं नहीं,तू है कू बा कू
मालिक रहे तेरा करम और मेरी “हू’

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