आए ज़िंदगी अब तुझ मे
वो बात ही कहाँ है
अब आए आसमान तुझ मे
कहाँ कोई कहकशां है
आए उदास रात तुझ मे
कोई कार्ब नीं जान है
इस सारा-सींगी के पीछे
कोइ खामोश सा तूफान है
था जहाँ किरदारों का मेला
अब कहाँ वो दास्तान है
हेर मुस्कुराहट के पीछे
कोई घरज़ हुक्मरान है
इन लकड़िओन के घरों मे
अब कहाँ कोई मकान है
देख मोसमों की बेवफ़ाइ
हवा कूब से परेशन है
है हेर सुबह माचीनों सी
ज़िंदगी अब ना-मेहेरबान है
शामों को तो ढालना है
वक़्त भला रुकता कहाँ है
एक मई ही पथराई नही हूँ
यहाँ हेर कोई चतान है
सूक्ष्म पर बेहद प्रभावशाली कविता...सुंदर अभिव्यक्ति..प्रस्तुति के लिए आभार जी
जवाब देंहटाएंऐसी कवितायें रोज रोज पढने को नहीं मिलती...इतनी भावपूर्ण कवितायें लिखने के लिए आप को बधाई...शब्द शब्द दिल में उतर गयी.
जवाब देंहटाएंsanjay ji sarahna ka shukriya..
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