बुधवार, 20 मई 2009

लज़्ज़त-ए-इश्क़ गर


लज़्ज़त--इश्क़ गर गुनाह होज़ाये
कभी हम से यह ख़ाता होज़ाये
अक़हल-शऊर का अब खुदा हफ़ीज़
इश्क़ की हेर अदा खुदा होज़ाये
परवाना जला शम्मा,सहेर होने तक
सोज़--इश्क़ मुझे उम्र-भर आटा होज़ाये
करम,गर दामन--यार हाथ आजाए
चाँददर्द--मोहब्बत और सवा होज़ाये

2 टिप्‍पणियां:

  1. लज़्ज़त-ए-इश्क़ गर गुनाह होज़ाये
    कभी हम से यह ख़ाता होज़ाये

    beshak sahi likhaa hai . ishk bhi shaadi ke laddoo ki maanind hai jo khaaye pachhtaaye na wo pachhtaaye

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  2. ji ye vo laddu hai jo her kisi ke haath na aaye.bahut nayab laddu hai..

    chaand

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