बुधवार, 12 अगस्त 2009

सहेमी सहेमी शामें हैं



सहेमी सहेमी शामें हैं
कैसे उजड़े उजड़े दिन हैं
पतझड़ के मोसां हैं
गुलशन के अपने घूम हैं
वही दिन साल साड़ियाँ हैं
सवाल करती नदियाँ हैं
सेहरा सेहरा बहती हैं
नज़ाने क्या कहती हैं
किनारों का मूह ताकते
खामोश साहिल दरया हैं
पेड़ों की उजड़ी शाखें जैसे
बेघर पंछी का गिरया हैं
बदल भी चुप रहते हैं
दर्द सबा के सहते हैं
दुनिया एक फसाना है
मंज़र सारे कहते हैं

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